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जैसा की आपको जानकारी होगी, की भारत चीन के बीच चल रहे द्वन्द युद्ध में अमेरिका भी उतर आया है.
अमेरिका के विदेश सचिव ने साफ़ कर दिया है, की साउथ चाइना सी मलेशिया वियतनाम और इंडिया को चीन से जो खतरा पेश हुआ है, उससे निपटने के लिए अमेरिका अपनी सैन्य शक्ति की तैनाती में सुधार कर रहा है.
चलिए देर आये दुरुस्त आये, अगर अब भी अमेरिका ने पूरी शक्ति चीन से निपटने पर नहीं लगायी, तो सबसे ज्यादा नुकसान उसे ही उठाना पड़ेगा.
इस बीच भारत में बड़े बड़े विद्वान लोग बिन मांगी सलाह दे रहे हैं, की भारत ने चीन से निपटने के लिए अमेरिका यूरोप और अन्य देशो की मदद नहीं लेना चाहिए, ताकि भारत की कूटनीतिक स्वतंत्रता बनी रहे.
अगर आपको इन एक्सपर्ट लोगों की बातों को सुनकर लग रहा हो, की ये लोग ऐसे विचार लाते कहाँ से हैं, तो आप जाके कोई भी चाइनीस अंग्रेजी अख़बार उठा कर पड़ लीजिये.
उनमे चीन के एक्सपर्ट भी यही कन्क्लूज़न पर पहुंचते हैं, की भारत चीन के खिलाफ कभी अलायन्स नहीं बनाएगा, क्योकि उसे अपनी गुट निर्पेक्छ्ता प्यारी है.
इसलिए अब आपको समझ आ गया होगा, की चीन के खिलाफ डेमोक्रेटिक अलायन्स में शामिल होने के लिए भारत के एक्सपर्ट सलाह लेने के लिए कहाँ से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं.
इन विद्वानों का कहना बिलकुल साफ़ है, चीन नेपाल पाकिस्तान के साथ मिलकर अकेला भारत को पीटता रहे, तो सब ठीक है, लेकिन फिर भी भारत ने अपने डेमोक्रेटिक दोस्तों के साथ मिलकर इस चुनौती से नहीं निपटना चाहिए.
अब आप सोच रहे होंगे, की हम इस विस्व व्यापी लोकतान्त्रिक गठबंधन की बात क्यों कर रहे हैं.
बात यह है, की कुछ ही महीनो पहले अमेरिका और सिंगापुर ने एक ऐतिहासिक एग्रीमेंट किया था, जिसके तहत पश्चिमी प्रशांत महासागर में स्थित अमेरिकन टेरिटरी गुआम में सिंगापुर को अपनी एयरफोर्स और वायु सैनिको को डेप्लॉय करने का अधिकार मिल गया है. गुआम में तैनात यह एक स्क्वाड्रन सिंगापुर की एयरफोर्स की ट्रेनिंग के लिए होगी, ताकि वह वेस्टर्न पसिफ़िक एरिया में किसी भी ऑपरेशन को अंजाम देने में सक्छम हो जाये. साथ ही साथ अमेरिका और सिंगापुर मिलकर इस पुरे इलाके में निगरानी बनाये रख सकें.
वैसे आप को भी समझ आ गयी होगी असली बात, ट्रेनिंग और मॉनिटरिंग तो बहाना है, असल इरादा तो कुछ और ही है.
और अब अगले साल के अमेरिकन नेशनल डिफेंस authorization एक्ट में यह भी प्रस्ताव शामिल किया गया है, की अमेरिकन डिफेंस सेक्रेटरी अध्यन करेंगे, की क्या भारत जापान और ऑस्ट्रेलिया को भी गुआम में ट्रेनिंग की फैसिलिटी दी जा सकती है.
एक आम आदमी के दिमाग से जहाँ तक हम समझ सकते हैं, हिन्द प्रशांत महासागर में अंतरास्ट्रीय कानून का पालन करवाने की जीतनी जिम्मेदारी अमेरिका की है, उतनी ही रिस्पांसिबिलिटी हमारी भी है.
आप ही बताएं, हमारे पूर्वजो ने हमें यह खुले समुद्र क्या इसलिए सौंपे थे, की चाइनीस पेपर ड्रैगन कब्ज़ा करके इन्हे एक दिन तालाब में कन्वर्ट कर देगा??
इसलिए यदि हमारी वायुसेना को गुआम मेरीटाइम जोन में ट्रेनिंग का मौका मिलता है, तो इसमें क्या बुराई है, यह हमारी समझ के तो परे है.
जबकि अमेरिका अपने यहाँ भारत को फाइटर जेट ट्रेनिंग की फैसिलिटी देने की सोच रहा है, तो हो सकता है, की अमेरिका भारत से भी बदले में ऐसी ही सुविधा चाहे. वैसे यदि कोई भी सौदा बराबरी का होता है, तो उसमे शामिल होने से संकोच हमें नहीं करना चाहिए.
जैसा की अभी अमेरिकन डिफेंस एक्ट पर चर्चा होगी, और वह बाद में पारित होगा, लेकिन जैसा की हमने पहले भी देखा है, डिफेंस एक्ट की नोर्मल्ली पास होने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती है.
इसलिए उम्मीद की जा सकती है, की आने वाले समय में भारत और अमेरिका मिलकर सिंगापुर की तरह ही एग्रीमेंट पर पहुंचेंगे, जिससे भारत की वायुसेना को गुआम तक पहुंच मिल जाएगी.
वैसे आपको ध्यान होगा, अमेरिका और इंडिया के बीच लॉजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट है, इसलिए अब ट्रेनिंग सपोर्ट एग्रीमेंट भी हो जाना चाहिए. लेकिन हम यहाँ पर फिर कहना चाहते हैं, की अमेरिका के साथ एग्रीमेंट बराबरी का होना चाहिए, भारत न तो चीन का और ना ही अमेरिका का पिछलग्गू बनाना चाहता है.
और ना ही अमेरिका को इस गफलत में रहना चाहिए, की वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपनी जेब में डालकर घूम सकता है.
डेमोक्रेसी और कम्युनिज्म के खिलाफ लड़ाई में लोकतंत्र की जीत तभी होगी, जब हम सभी मिलकर लड़ेंगे, नहीं तो अकेले अकेले हम सब को हराने की 100 सालों की साजिस पर तो चालू चीन पहले से ही काम कर रहा है.
इंडियन एयरफोर्स को गुआम में ट्रेनिंग फैसिलिटी देने के साथ साथ अमेरिकन डिफेंस एक्ट में यह भी प्रस्ताव है, की अमेरिका लॉन्ग रेंज एंटी शिप मिसाइल भी इंडो पसिफ़िक में तैनात करने के लिए खरीदेगा, ताकि मौका पड़ने पर इंडो पसिफ़िक को चाइनीस नेवी का कब्रिस्तान बनाया जा सके.
भले ही अमेरिका और इंडिया की मीडिया ट्रम्प शाहब को बेवक़ूफ़ समझती रहे, लेकिन जमीनी सच्चाई हमारे सामने है, पिछले 40 सालों में चाइनीस चुनौती की गंभीरता केवल प्रेजिडेंट ट्रम्प को ही समझ आयी है.
आइये देखते हैं, की चाइनीस कोरोना वॉर के दौरान राष्ट्रपति ट्रम्प को दूसरा कार्यकाल मिलता है या नहीं.
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